आजीवन निष्पक्ष पत्रकारिता के नाम पर इस्लाम की बात करने वाली आरफा अब प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम की तारीख नजदीक आते देख झुंझलाई हुई हैं
राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के मौके पर जब पूरा देश हर्ष और उत्साह से भरा है, वहीं कुछ व्यक्ति इस समर्थन में उठी रौंगत को देखकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। लोकतंत्र के नाम पर, संविधान की आड़ में इन्हें अपनी नफरत को जायज ठहराना है। आरफा खानम शेरवानी भी उनमें से एक हैं, जिन्होंने प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम की तारीख के करीब आकर अपनी आपत्ति जताई है।
उन्हें समस्या है इस बात से कि आखिर इतना राम का नाम लिया जा रहा है, क्यों मीडिया सिर्फ अयोध्या की कवरेज करने में लगा है, क्यों प्रधानमंत्री मोदी इस कार्यक्रम में शामिल होने जा रहे हैं, क्यों बीजेपी इसका प्रचार कर रही है, क्यों हिंदू कार्यकर्ता अपनी रामभक्ति दिखा रहे हैं और क्यों उनका प्रोपगेंडा अब फल फूल नहीं रहा।
इनकी ये सारी चिंताएं द वायर पर डली गई हैं, जहां उन्होंने अपने विचारों को एक व्यंग्यपूर्ण रूप में व्यक्त किया है। उन्होंने आवाज में दम लगाकर संविधान की प्रस्तावना पढ़ी और इसकी क्लिप शेयर करके फिर अपने ट्वीट में लिखा,
“ताकि सनद रहे: भारत एक संप्रभु,समाजवादी,धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है जिसने सभी नागरिकों को सुरक्षित करने का संकल्प लिया है। विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता देने वाला देश है। आज सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग रामनामी चादर ओढ़कर संविधान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।”
अचानक उठी आरफा की चिंता यह दिखाती है कि जब हिंदुओं ने अपनी पहचान और धर्म के लिए आवाज उठाई है, तो उन्हें चारों ओर से डर का माहौल नजर आया है, और अब जब हर दिशा में राम नाम की गूंज है, तो वह इसे कैसे बर्दाश्त करें… यही वजह है कि उसने इस संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देने का नाटक शुरू किया है।
आरफा ने वीडियो में जोर देकर धर्म को निजी मामला बताया है, लेकिन उसकी यही बातें इससे पहले कभी नहीं सुनी जातीं। चाहे कोई सड़क घेरकर नमाज पढ़े चाहे कोई ट्रेन रोककर। जब वहाँ संविधान और लोकतंत्र की बातें नहीं याद आतीं, तब कोई आरफा को उन कानूनी लड़ाई का ख्याल नहीं है जिसमें हिंदुओं ने दशकों तक लड़ी और तब जाकर अपने प्रभु को उचित स्थान दिला पाए।
आरफा खानम शेरवानी कभी लव जिहाद जैसे मुद्दों पर भी नहीं बोलतीं जहाँ साफ तौर पर धर्मांतरण पर जोर दिया जाता है, क्या तब आरफा जैसी मुस्लिम महिला पत्रकारों को ये ज्ञान नहीं देना चाहिए कि मजहब तो निजी मसला होना चाहिए और क्यों सैंकड़ों लड़कियों को धोखे से फँसाकर मुस्लिम बनाया जा रहा है।
इस चर्चा का संदेश यह है कि आरफा को संविधान, कानून और धर्म – निजी आस्था का विषय जैसी बातें तब नहीं समझ आतीं जब इस्लामी कट्टरपंथियों की भीड़ हाथ में चाकू तलवार लेकर ‘सिर तन से जुदा’ के नारे लगाते हुए सड़कों पर आती हैं और फिर कभी दिल्ली दंगा होता है तो बेंगलुरु में हिंसा।
आरफा की आवाज का बेस उस समय भी गायब रहता है जब कोई सरकार, पार्टी, उसके नेता बड़ी-बड़ी इफ्तार पार्टियों का आयोजन करते हैं और इस्लामी टोपी पहन उसमें शिरकत करते हैं। क्या तब ये इतना बुद्धिजीवी होने के नाते दर्शकों को समझाना अनिवार्य नहीं होना चाहिए कि एक समुदाय को खुश करने के लिए आखिर क्या किया जा रहा है, इससे हिंदुओं की भावना आहत हो सकती है….या ये सारा ज्ञानभंडार केवल हिंदुओं के लिए, भाजपा के लिए, प्रधानमंत्री मोदी के लिए ही है।
आरफा खानम चाहती हैं कि इस राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में पीएम मोदी भाग ही न लें। जबकि ऐसा वो क्यों करें इस बात का आरफा के पास जवाब नहीं है। राम मंदिर शुरू से ही भाजपा के लिए एक बड़ा मुद्दा रहा था। आज जब उनके कार्यकाल में वो कार्य पूरा हो रहा है तो वो इसमें क्यों न शामिल हों, क्यों अपनी खुशी न दिखाएँ।
वह खुद कहती हैं कि भारत देश धर्मनिरपेक्ष है और सबको पूजा का अधिकार है। तो, क्या इस देश के प्रधानमंत्री को अधिकार नहीं है कि वो अपने धर्म का अनुसरण करें। अगर पीएम मोदी को देश का ‘प्रधान’ मंत्री होने के नाते वहाँ पूजा पाठ करने का अवसर मिल रहा है तो क्या सिर्फ वो इसलिए छोड़ दें कि आरफा जैसे लोग नाराज हो जाएँगे। क्या प्रधानमंत्री देश के नागरिक नहीं हैं, उनकी कोई निजी आस्था नहीं है?
हर वीडियो में जब खुद को सच्चा, निष्पक्ष पत्रकार बताकर पूरे करियर भर इस्लाम की बातें कर सकती हैं, गलत को सही और सही को गलत होने के तर्क दे सकती हैं तो प्रधानमंत्री तो सिर्फ सनातन का पालन ही कर रहे हैं।
ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब आरफा ने सीएए/एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों की आग में घी डालने का काम किया था और मुस्लिमों को ज्ञान दिया था कि उन्हें अपनी स्ट्रैटेजी बदलने की जरूरत है। क्या उन्हें पत्रकार होने के नाते देश के हर नागरिक की आवाज नहीं बनना चाहिए था? वो क्यों एक ही समुदाय को उनकी स्ट्रैटेजी बदलकर बात मनवाने की तरकीब सिखा रही थीं?
दरअसल, आरफा जैसों के लिए परेशानी ये है कि आज के समय में जैसे-जैसे हिंदू अपने धर्म के लिए जागरूक हो रहा है उनके सेकुलर होने की परिभाषा भी उसके सामने स्पष्ट हो गई है। इतने सालों से खुद को ‘सेकुलर’ कहकर हर कट्टरपंथी कृत्य को धो-पोंछने का काम किया जा रहा था, और ऐसा माहौल बनाया जा रहा था कि हिंदू अपने हिंदू होने पर ही शर्मिंदा होने लगे।
अब वह समय बदल गया है। हिंदू समुदाय में एक नई उत्सुकता उत्पन्न हुई है, जो जानने की इच्छा है कि अयोध्या कैसे फैजाबाद बन गया, कैसे बाबरी का ढाँचा रामजन्मभूमि पर खड़ा हुआ। इसके साथ ही, इन विचारों के बदलते दृष्टिकोण के साथ, ऐसे व्यक्तियों का सेकुलरिज्म खतरे में आ गया है जैसे आरफा खानम। वह आज मुस्लिम समुदाय की भावनाओं के बारे में बात करती हैं, जब राम मंदिर बन जाने से उनकी भावनाएं आहत होने की बात कर रही हैं। क्या ये सवाल नहीं उठेंगे कि क्या तब हिंदुओं की भावनाएं भी आहत नहीं हुईं थीं जब इस्लामी आक्रमणकारियों ने हिंदुओं के मंदिरों पर हमले किए थे, उनकी मूर्तियों को खंडित किया गया था।
एक बार इस पर गौर करें कि भारत में इस्लामी आक्रमण से पहले सनातन धर्म का एक समृद्ध इतिहास था, जिसे मिटाने की कोशिशें की जा रही थीं। यदि कोई आपसे पूछे कि आप उस समय के हिंदुओं पर हुई बर्बरता के खिलाफ क्यों आवाज नहीं उठातीं, तो आप कैसा जवाब देंगीं…
ये सारी बातें सिर्फ इसलिए याद दिलाईं है ताकि आपको भी सनद रहे हिंदुओं ने राम मंदिर कानूनी लड़ाई से लिया है। वो संविधान और लोकतंत्र के दायरे में रहकर अपने प्रभु के मंदिर बनने का उत्सव मना रहे हैं। मथुरा-काशी अभी शेष हैं और शेष हैं वो सारे धर्मस्थल… जिनका नामों-निशान एक जमाने में मिटाने का प्रयास हुआ, और देश का तथाकथित सेकुलर आजादी के बाद उसपर चुप रहा। हिंदू अपनी आस्था से जुड़ी हर बात साबित करने के लिए कोई गैर लोकतांत्रिक कदम नहीं उठा रहा उनका हर तरीका कानून के दायरे में रहकर है इसके लिए इतनी तिलमिलाहट अच्छा नहीं है।